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ये है मंत्र सिद्धि के 16 अंग।

वैदिक संस्कृति में मूर्ति पूजा, यंत्रपूजा एवं तांत्रिक साधना मंत्रयोग के अनुसार ही होती है। यही कारण है कि मंत्र का विस्तार तथा इसका महत्व सबसे अधिक है।
चंद्रमा की सोलह कलाएं व मंत्र - चंद्रमा की सोलह कलाओं के समान मंत्र के भी 16 ही अंग हैं, यथा - 1. भक्ति 2 शुद्धि 3. आसन 4. पञ्चाङ्ग 5. आचार 6. धारणा 7. शरीर व यंत्र सेवन 8. प्राण क्रिया 9. मुद्रा 10. तर्पण 11. हवन 12. बलि 13. देव पूजन 14. जप 15. ध्यान व 16. समाधि।
1. भक्ति - व्यक्ति द्वारा ईश्वर के प्रति परम अनुराग या प्रेम को भक्ति कहते हैं। जिस प्रकार शबरी ने राम से, मीरा ने कृष्ण से, सुदामा ने कृष्ण से की। भक्ति तीन प्रकार की होती है - 1. वैधी - शास्त्रों में वर्णित विधि एवं निषेध द्वारा वर्णन के आधार पर की गई भक्ति जिसमें भक्त ईश्वर के प्रति स्वयं का समर्पित न करें। 2. श्रद्धा - स्वयं को ईश्वर या अपने आराध्य के प्रित समर्पित करना। 3. प्रेम - व्यक्ति की श्रद्धा या अनुराग जब प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है तो वह भक्ति प्रेम से परिपूर्ण हो जाती है।
चंद्रमा की सोलह कलाएं व मंत्र - चंद्रमा की सोलह कलाओं के समान मंत्र के भी 16 ही अंग हैं, यथा - 1. भक्ति 2 शुद्धि 3. आसन 4. पञ्चाङ्ग 5. आचार 6. धारणा 7. शरीर व यंत्र सेवन 8. प्राण क्रिया 9. मुद्रा 10. तर्पण 11. हवन 12. बलि 13. देव पूजन 14. जप 15. ध्यान व 16. समाधि।
1. भक्ति - व्यक्ति द्वारा ईश्वर के प्रति परम अनुराग या प्रेम को भक्ति कहते हैं। जिस प्रकार शबरी ने राम से, मीरा ने कृष्ण से, सुदामा ने कृष्ण से की। भक्ति तीन प्रकार की होती है - 1. वैधी - शास्त्रों में वर्णित विधि एवं निषेध द्वारा वर्णन के आधार पर की गई भक्ति जिसमें भक्त ईश्वर के प्रति स्वयं का समर्पित न करें। 2. श्रद्धा - स्वयं को ईश्वर या अपने आराध्य के प्रित समर्पित करना। 3. प्रेम - व्यक्ति की श्रद्धा या अनुराग जब प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है तो वह भक्ति प्रेम से परिपूर्ण हो जाती है।
2. शुद्धि - ईश्वर की प्राप्ति में शुद्धि अत्यंत महत्वपूर्ण है। मंत्र साधना में भी शुद्धि का विशेष महत्व है। किसी भी मंत्र या देव उपासना में चार प्रकार की शुद्धि का उल्लेख मिलता है। 1. शरीर शुद्धि, 2. चित्त शुद्धि, 3. दिक् शुद्धि एवं 4. स्थान शुद्धि। काय शुद्धि को बाह्य शुद्धि तथा चित्तशुद्धि को अन्त: शुद्धि भी कहते हैं।
काय शुद्धि - स्नान के द्वारा शरीर शुद्ध हो जाता है। मल के प्रक्षालन को स्नान कहते हैं। अत: स्नान करने से शरीर निर्मल हो जाता है। यह स्नान 7 प्रकार के होता है - मांत्र - आपोहिष्ठा भुव: इत्यादि मंत्रों से मार्जन करने को मांत्र स्नान कहते हैं। 2. भौम - उबटन इत्यादि लगाकर रगड़-रगड़ कर नाहने को भौम स्नान कहते हैं। 3. आग्नेय - भस्म से स्नान करने को आग्नेय स्नान कहते हैं। 4. वायव्य - गायों के खुरों से उड़ी हुई धूलि से स्नान करने को वायव्य स्नान कहते हैं। 5. दिव्य - धूप या वर्षा से स्नान करने को दिव्य स्नान कहते हैं। 6. वारुण- जल में अवगाहन करने को वारुण स्नान कहते हैं। 7. मानस - भगवान विष्णु का स्मरण मानस स्नान कहलाता है।
चित्त शुद्धि - अभय, रागरहितता, ज्ञानयोग, दम, दान, यज्ञ, वेद एवं शास्त्रों का स्वाध्याय, तप, नम्रता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अपिशुनत्व, दया, सब जीवों पर अनुग्रह, मृदुता, अचपलत्व, तेज, क्षमा, धृति, शौच, अद्रोह एवं अतिमानिता का अभाव - ये सब चित्त को शुद्ध करते हैं।
दिक् शुद्धि - दिक् शुद्धि के द्वारा साधक का मन वश में होता है तथा उसकी साधना में सिद्धि मिलती है। अत: प्रयत्नपूर्वक दिक् शुद्धि करनी चाहिये।
दिन में पूर्वाभिमुख होकर तथा रात्रि में उत्तराभिमुख होकर विधिवत जप एवं देव पूजन करना चाहिये। काम्य प्रयोगों में बतलायी गयी तत्तद् दिशा की ओर मुंह करके जप आदि करना चाहिये, इसे दिक्शुद्धि कहते हैं।
दिन में पूर्वाभिमुख होकर तथा रात्रि में उत्तराभिमुख होकर विधिवत जप एवं देव पूजन करना चाहिये। काम्य प्रयोगों में बतलायी गयी तत्तद् दिशा की ओर मुंह करके जप आदि करना चाहिये, इसे दिक्शुद्धि कहते हैं।