ये है शिवरात्रि का आध्यात्मिक रहस्य

शिव और शिवा (पार्वती) का विवाह अनादिकाल से होता आ रहा है, जिसे इसका प्रत्यक्ष दर्शन होता है, उसे मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त होती है और वह जन्म और मरण के चक्र से छुटकारा पा लेता है। शिव कल्याण स्वरूप हैं तथा पार्वती शक्तिस्वरूपा हैं, शिव और शक्ति का मिलन ही विश्व-कल्याण तथा विश्व-शांति को स्थापित करता है। वैज्ञानिकों, आविष्कारकों तथा उनको आश्रय देने वाली राजसत्ताओं की ऊर्जा (शक्ति) का संपर्क शिव (विश्वकल्याण की चेतना) से न होने से आज वैज्ञानिक उपलब्धियों से विश्व, विनाश की ओर बढ़ रहा है और उनके दुरुपयोग से, शोषण, अत्याचार, प्रदूषण तथा युद्ध बढ़ते जा रहे हैं। शिव के मिलन से यह शक्ति, दैवी रूप धारण करती है अन्यथा असुरों द्वारा उसका हरण होकर दुरुपयोग होता है। भारतीय संस्कृति की अमरता का रहस्य परिणय सूत्र में बंधने में ही निहित है। जिस संस्कृति में, शक्ति का संबंध धर्मरूपी शिव से जुड़ा रहता है, वह सनातन रूप से प्रवहमान रहती हैं, अन्यथा वह संस्कृति, विकृति का रूप धारण कर नष्ट हो जाती है।
शैवागम में, मानव शरीर में सुषुम्ना नाड़ी का पार्वती तथा मेरुदण्ड को हिमवान कहा जाता है। मेरुदण्ड (हिमालय) में ही सुषुम्ना का निवास है। कटि में जहां त्रिकास्थि स्थित है, उस पर मेरुदण्ड स्थापित है। त्रिकास्थि तथा अनुत्रिकास्थि की आकृति त्रिकोणाकार होती है, इसे शक्तिपीठ माना गया है। इस पर स्वयंभू शिव विराजित हैं, उन्हें भगवती कुण्डलिनि साढ़े तीन लपेटों में लपेटे हुए हैं। इनके साथ सुषुम्ना के मिलने से त्रिवेणी बनती है, यह त्रिवेणी मेरुदण्ड के मध्य में होती है। मेरुदण्ड, जिसमें से सुषुम्ना नाड़ी प्रवाहित होती है, सिद्धियों, शक्तियों, ऊर्जाओं तथा विचित्र चमत्कारों का केन्द्र है। इसमें असंख्य मर्मस्थान हैं। शक्तियों के इस कोषागार में सुरक्षा हेतु ताले लगे हैं, जिन्हें चक्र कहते हैं। इनकी संख्या छह है, अत: ये षट्ïचक्र कहलाते हैं। इन तालों को खोलना जनसाधारण के वश की बात नहीं है। गुरु के उपदेश से कोई विरले ही योगी, उनके खोलने की विधि सीख पाते हैं और सतत योगाभ्यास के द्वारा ऊर्जा के कोषागार तक पहुंच पाते हैं।
इडा-पिंगला तथा सुषुम्ना नाडिय़ां-स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देती है, वे तो विद्युत-प्रवाह की भांति अदृश्य हैं। सूक्ष्म जगत में इडा नाड़ी ऋणात्मक तथा पिंगला नाड़ी धनात्मक है। जहां इनका मिलन होता है, वहां से सुषुम्ना नाड़ी का प्रारम्भ होता है, जो साधक योगी इस त्रिवेणी संगम पर स्नान करता है, वह पापरहित होकर मुक्त हो जाता है। त्रिवेणी का संबंध, ऊपर ब्रह्मïरन्ध्र पर स्थित सहस्रदल कमल से तथा नीचे अनुत्रिकास्थि की नोक तक है। सहस्रदल कमल, विष्णु की शेष शय्या है। इसका संबंध ब्रह्मïाण्डव्यापी ऊर्जा तथा सूक्ष्म लोकों के साथ है। योगियों के अनुसार सुषुम्ना के पाश्र्व में ब्रह्मïनाड़ी होती है, जो पूरे ब्रह्मïाण्ड में ऊपर से नीचे तक रहती है। मेरुदण्ड के अंतिम छोर पर एक कृष्णवर्ण का षट्ïकोण है, जो कूर्म कहलाता है। इन रचनाओं को आधुनिक वैज्ञानिक नहीं देख सकते। यह तो केवल योगियों को ही दृष्टिगोचर होती हैं। ब्रह्मïनाड़ी तथा कूर्म जहां पर गुंथे होते हैं, उस स्थल को कुंडलिनी कहा जाता है। कुंडलिनी शक्ति सिद्धि का भण्डार है। आधुनिक पदार्थ वैज्ञानिकों ने जिस प्रकार परमाणु विखंडन किया है, तथैव प्राचीन योगियों ने बीज परमाणु को विखंडित करने, मिलाने तथा स्थानांतरित करने के कार्य में यौगिक क्रियाओं द्वारा दक्षता प्राप्त की थी। शरीर के अन्य भागों के परमाणु गोल तथा चिकने होते हैं, कुंडलिनी के परमाणु उससे लिपटे रहते हैं, अत: इनका संचालन सुगम होता है। इनकी गति एक सेकण्ड में लगभग 5,17,500 किलोमीटर होती है। कुंडलिनी के जागरण से साधक शक्ति-सम्राट बन जाता है। ब्रह्मï साक्षात्कार के उसे सभी साधन उपलब्ध रहते हैं, परंतु उसे कोई कामना नहीं रहती है। उसके आशीर्वाद से जन-कल्याण होता है।
सुषुम्ना रूपी शक्ति का जब योगाभ्यास द्वारा, शक्तिपीठ पर आसीन शिव से मिलन होता है, आध्यात्मिक रूपक में वही शिव-पार्वती का विवाह कहलाता है। इस प्रक्रिया में प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनुसार शिव के तेज का स्पन्दन होता है, तब कुमार (स्कंद या कार्तिकेय) का जन्म होता है। यही कुंडलिनी का जागरण है। बिगड़ा हुआ मन ही तारकासुर है। उसका वध देव सेनापति कुमार करते हैं। कुमार के नेतृत्व में अंत:करण में सात्विक प्रवृत्तियां बलवान हो जाती हैं, जो साधक तथा समाज दोनों का ही कल्याण करती हैं।
शिवरात्रि व्रत पर्व का यही आध्यात्मिक रहस्य है।
`ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन:।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नम:॥`
- ज्योतिष मंथन19/02/2020