गायत्री मंत्र
गायत्री हमें ज्ञान, प्रकाश और उऊर्जा की इस महासत्ता से जोड़ती है। वह हमें `भू:` से आरम्भ करके `भर्गोदेव` की ओर ले जाती है और हमारी बुद्धि को त्रिगुण के भंवर से निकाल कर उस परम तत्त्व की ओर प्रेरित करती है जिससे लगातार अमृत वर्षा होती रहती है।
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रयोदयात्
`ॐ` : गायत्री का क्रम ॐ से आरम्भ होता है ॐ के ऋषि ब्रह्मा हैं। ॐ का अकार, उकार, मकारात्मक स्वरूप है।
`भू:` : वास्तविक आरम्भ भू: स्व: मह: जन: तप: सत्यम् से है। सत्यम् से भू: तक की स्थिति एक सूत्र में बंधी है किन्तु हमारी दृष्टि सत्यम् पर नहीं जा सकती। सामने की भू: को हम समझ सकते हैं इसलिए भू: से ही इसका आरम्भ करते हैं। देवताओं की गणना में `अग्निर्वै देवाम अवम: विष्णु: परम:` यह कहा जाता है। सबसे पहले अग्नि हे, सबके अन्त में तैंतीसवें विष्णु हैं। अग्नि का सम्बन्ध भू: से ही है और इसी अग्नि की सारी व्याप्ति हो रही हैं इसलिए प्रथम दृष्टि भू: पर ही जानी चाहिए।
`भुव:` : पहले पञ्च महाभूतों से किस रूप में पृथ्वी बन रही है- उसका सारा श्रेय भुव: को होता है। भुव: को होता है। भुव: नाम को जो अन्तरिक्ष है वह सोममय समुद्र से भरा हुआ है, अनवरत सोम की वृष्टि वहां से पृथ्वी पर होती रहती है किन्तु स्मरण रहे कि अकेले सोम की वृष्टि नहीं है। भू: भुव: स्व: ये तीनों सूत्र जुड़े हुए हैं। स्व: में आदित्य है। वहाँ अमृत और मृत्यु दोनों तत्त्व मौजूद है।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो विनेशयन्नमृतं मत्र्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन्।।
अमृत और मृत्यु दोनों तत्त्वों को साथ लेकर आदित्य की गति बताई गई है। उसमें भी आदित्य का ऊध्र्व भाग आदित्य मण्डल है और वह आदित्य बारह मण्डालों में विभक्त है। बारहवें मण्डल पर विष्णु विराजमान है। जो आदित्य मण्डल का ऊपरी अर्ध भाग है उसकी विवेचना वेद में अमृत रूप में आई है। नीचे का अर्ध भाग जो पृथ्वी से जुड़ा आ रहा है वह मृत्युमय है।
अन्तरं मृत्योरमृतं मृत्यावमृतमाहितम्।
मृत्युर्विवस्वन्तं वस्ते मृत्योरात्मा विवस्वति।। (शत.)
मृत्यु में अमृत का आधार हो रहा है। इस तरह से अमृत मृत्यु दोनों से जुड़ा हुआ तत्त्व जो सोम बनकर पृथ्वी पर उतर रहा है उसका बीच में अन्तरिक्ष ही सारा समुद्र घर बना हुआ है। इस अन्तरिक्ष में हमारी पृथ्वी के जैसे अनन्त लोक विराजमान हैं। ये लोक सूर्य की ज्योति से ढके रहते हैं और सूर्यास्त के बाद तारों के रूप में खिले पड़ते हैं। भुव: के अन्तरिक्ष से सतत् अमृत -मृत्युमय तत्त्व पार्थिव अग्नि में सम्मिश्रित हो रहा है। प्रकृति का यज्ञमय सङ्गतिकरण चलता रहता है। उसी से पार्थिव अग्नि में सम्मिश्रित हो रहा है। प्रकृति का यज्ञमय सङ्गतिकरण चलता रहता है। उसी से पार्थिव अग्नि की जागृति होती है।
`स्व:` : भू: से चला हुआ अग्नि भुव: को पार करके स्व: में जा रहा है। स्व: को संस्कृत में स्वर्ग वाची बताया गया है। स्व: प्रत्यक्ष पिण्ड है। आदित्य है जिसके एक दूसरे से बड़े 12 मण्डल रूप विभाग हैं। सूर्य के साथ हजारों सप्र, हजारों पक्षिगण, हजारों असुर, हजारों देवगण उदित हो रहे हैं। वे खाली देखने के लिए थोड़े ही उदित हो रहे हैं, उन सबका क्रियामय कर्म चल रहा है। इधर अमृतभाव भी आ रहा है उधर विषभाव भी आ रहा है। सम्मिश्रित होकर पृथ्वी तक आ रहे हैं और यहाँ नीचे समुद्र में उनका मथन हो रहा है। मंथन द्वारा जो किनारे पर पांक आ रहा है- वायु उसमें बन्द होकर बुदबुद, पांक-कीचड़ सिक्ता सूख कर पृथ्वी का रूप बनता चला जा रहा है।